मेरी एक नई ग़ज़ल
दोस्तों,
उर्दू वर्ल्ड वेबसाइट पर हाल ही तरही ग़ज़ल मुक़ाबला शुरू किया गया है. इसमें जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मिसरे 'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती' पर कई शायरों ने अपनी-अपनी ग़ज़ल पेश की है. मैंने भी इस बहर पर वहाँ ग़ज़ल पोस्ट की है. आपके लिए वह ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ. यह बहर-ए-हज़ज सालिम (मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन) है. ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए.
दोस्तों,
उर्दू वर्ल्ड वेबसाइट पर हाल ही तरही ग़ज़ल मुक़ाबला शुरू किया गया है. इसमें जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मिसरे 'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती' पर कई शायरों ने अपनी-अपनी ग़ज़ल पेश की है. मैंने भी इस बहर पर वहाँ ग़ज़ल पोस्ट की है. आपके लिए वह ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ. यह बहर-ए-हज़ज सालिम (मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन) है. ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए.
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अजब उलझन भरे दिन हैं वजह जानी नहीं जाती
हमारी बेकरारी उनकी हैरानी नहीं जाती.
कभी तारीक गोशों से सुनी थी इक सदा हमने
हुई मुद्दत मगर दिल से परेशानी नहीं जाती.
भरी बस्ती में भी हालत ख़राबे से नहीं कमतर
हमारे घर से आख़िर क्यों ये वीरानी नहीं जाती.
ख़सारा ही ख़सारा अपने हिस्से में चला आया
कभी तक़दीर के क़ातिब की मनमानी नहीं जाती.
अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं रहता
यहाँ तन्हाइयों के रुख़ से ताबानी नहीं जाती.
लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती.
पनाहें माँगने वाले मुसलसल बढ़ गए, लेकिन
महल के बंद दरवाज़ों से अरज़ानी नहीं जाती.
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.
मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.
हमारे आज से बेहतर नई नस्लों का कल होगा
भले नासाज़ हों हालात, इम्कानी नहीं जाती.
उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.
मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है कि लासानी नहीं जाती.
कभी है मीर का पहलू कभी ग़ालिब महकते हैं
ज़ियादा दूर ग़ज़लों से निगेहबानी नहीं जाती.
-दिनेश ठाकुर
अजब उलझन भरे दिन हैं वजह जानी नहीं जाती
हमारी बेकरारी उनकी हैरानी नहीं जाती.
कभी तारीक गोशों से सुनी थी इक सदा हमने
हुई मुद्दत मगर दिल से परेशानी नहीं जाती.
भरी बस्ती में भी हालत ख़राबे से नहीं कमतर
हमारे घर से आख़िर क्यों ये वीरानी नहीं जाती.
ख़सारा ही ख़सारा अपने हिस्से में चला आया
कभी तक़दीर के क़ातिब की मनमानी नहीं जाती.
अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं रहता
यहाँ तन्हाइयों के रुख़ से ताबानी नहीं जाती.
लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती.
पनाहें माँगने वाले मुसलसल बढ़ गए, लेकिन
महल के बंद दरवाज़ों से अरज़ानी नहीं जाती.
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.
मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.
हमारे आज से बेहतर नई नस्लों का कल होगा
भले नासाज़ हों हालात, इम्कानी नहीं जाती.
उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.
मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है कि लासानी नहीं जाती.
कभी है मीर का पहलू कभी ग़ालिब महकते हैं
ज़ियादा दूर ग़ज़लों से निगेहबानी नहीं जाती.
-दिनेश ठाकुर
मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
ReplyDeleteमेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.
और
उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.
भई वाह। बहुत खूब।
दिनेश ठाकुरजी
ReplyDeleteबहुत पुख़्ता और रवां-दवां ग़ज़ल कही है । हर शे'र क़ाबिले-ता'रीफ़ है ।
गुनगुनाने को मन करता है…
"न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती."
…क्या एहसास का शे'र है …
"मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती."
…और बड़ा म'सूम शे'र है …
"उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती."
वाह - वाह ! क्या कहने !
बहुत-बहुत बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
जनाबे दिनेश ठाकुर साहिब
ReplyDeleteआदाब
फैज़ की ज़मीन पर आपने ख़ूबसूरत गुल खिलाएं हैं
एक से बढ़ कर एक आपका यह शेर तो दिल में उतर गया है
लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती
आदाब
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
दिनेश जी,
ReplyDeleteउर्दू वर्ल्ड पर आपकी यह लाजवाब ग़ज़ल
रोमन स्क्रिप्ट में पढ़ चुकी हूँ, लेकिन अपनी
हिंदी में पढ़ कर अलग ही आनंद महसूस
किया. उर्दू वर्ल्ड पर तो इस ग़ज़ल पर
दुनिया भर से कमेंट्स भी शानदार आ
रहे हैं. मुबारकबाद क़बूल कीजिए.
सादर,
अंतिमा किंगर, मुंबई
दिनेश ठाकुर साहेब,
ReplyDeleteआदाब,
बहुत पुरअसर और पुरलुत्फ ग़ज़ल बुनी है आपने.
सभी शे'रों में ग़ज़ब की रवानी है. मुश्किल बहर को
आखिर तक खूब निभाया है आपने. तितली और
मजदूरों वाले शे'र तो ग़ज़ल की जान हैं.
ढेर सारी दाद कबूल कीजिए..शुक्रिया.
-रोशन राही
बहुत उम्दा ग़ज़ल है दिनेश जी..
ReplyDeleteएक-एक शे'र नगीने की तरह
तराशा हुआ महसूस होता है.
बहुत-बहुत आभार आपका.
निहारिका व्यास
हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
ReplyDelete'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.
इस शेर को पढने के बाद अब मैं क्या लिखूं आपकी तरफ में. दिनेशजी; बहुत ही अच्छा महसूस हुआ आपके ब्लॉग पर आकर.
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
ReplyDeleteफ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
भई वाह, हासिले गजल शेर है
हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.
मिसरा भी बहुत खूबसूरत बान्धा है दोनों मिसरे अलग अलग लिखे गये लग ही नहीं रहे
बधाई कबूल करें
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
ReplyDeleteफ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
वाह!
बहुत उम्दा !
दिनेश जी ,बहुत सच्चा शेर है ,
पूरी ग़ज़ल एक तरफ़ और ये शेर एक तरफ़,बहुत ख़ूब!
इस ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए लफ्ज़ नहीं हैं मेरे पास...कमाल किया है आपने...सुभान अल्लाह...ग़ज़ल सीधे दिल में घर कर गयी...दिली दाद कबूल करें...
ReplyDeleteनीरज
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
ReplyDeleteफ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
ye aap ko nazar karta hua aap ko aadab kahuga , dinesh jee aap ki gazal ka har sher damdaar hai , kis kis sher ki taarif karu , bas itna hi kah sakta hoo wa wa wa...
saadar
वाह..वाह जनाब दिनेश ठाकुर सा'ब क्या खूब ग़ज़ल तख्लीक़ की
ReplyDeleteहै आपने.. पढ़ कर रूह वज्द में आ गई....इन शे'रों का तो
कहना ही क्या....
लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती.
पनाहें माँगने वाले मुसलसल बढ़ गए, लेकिन
महल के बंद दरवाज़ों से अरज़ानी नहीं जाती.
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.
तहे-दिल से दाद कबूल फरमाइए...उम्मीद है आपका कलाम
मुसलसल पढ़ने को मिलता रहेगा.
-सबा कैफ़ी
दिनेश जी, मैं आपको कई साल से लगातार पढ़ रहा हूँ...उस ज़माने
ReplyDeleteसे जब आपकी ग़ज़लें 'सारिका' में छपा करती थीं. आपके
अंदाज़े-बयाँ और अल्फाज़ के चुनाव का क़ायल हूँ.
यह लाजवाब ग़ज़ल आपने भले फैज़ अहमद फैज़ के मिसरे
पर लिखी हो, इसके एक-एक शे'र पर आपका रंग
साफ़ महसूस होता है. बहुत-बहुत बधाई.
-यश मित्तल
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
दिनेश जी, आपने बहुत दिलकश ग़ज़ल पेश की है.
ReplyDeleteग़ज़ल पर आपकी ज़बरदस्त पकड़ से बखूबी वाकिफ हूँ.
फ़ैज़ साहब के मिसरे पर आपने एक से बढ़ कर एक शे'र
निकाले हैं. बस, एक गुज़ारिश है की उर्दू के कठिन अल्फ़ाज़
के हिंदी अर्थ भी ज़रूर दिया करें, क्योंकि मेरे जैसे कई पाठक
होंगे, जिनकी 'ख़राबा', 'ख़सारा', 'उरियानी', 'तुगियानी', 'अरज़ानी'
और 'लासानी' से जान-पहचान कम ही होगी. कृपया मेरी बात
को अन्यथा मत लीजिएगा. ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई.
सुनील भसीन, पेरिस (फ्रांस)
क्या खूब ग़ज़ल रची है आपने. हर शे'र में उस्तादों वाला रंग है.
ReplyDeleteपहले शे'र से आखिरी शे'र तक ग़ज़ब की लय है. आपका यह
हुनर हमेशा बरक़रार रहे..हार्दिक शुभकामनाएँ.
-तृप्ति भटनागर
वाह ! वाह !! दिनेश जी आपने फैज़ साहब के
ReplyDeleteमिसरे पर ज़बरदस्त तरन्नुम वाली ग़ज़ल
पेश की है. पढ़ कर लुत्फ़ आ गया. क्या खूब
अंदाज़े-बयाँ है आपका...
उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.
निहायत मासूम और उस्तादी वाला शे'र है.
दाद क्या, इस ग़ज़ल पर दिल कुर्बान.
-राशिद खान
भरे हैं रंग जो तुमने ग़ज़ल में आज ए "ठाकुर"
ReplyDeleteकरें तारीफ़ हम कैसे ? परेशानी नहीं जाती
वाह ! वाह !! वाह !!!
आनंद आ गया !!!!
आपके अंदाज़े-बयाँ का जवाब नहीं दिनेश जी.
ReplyDeleteफैज़ साहब के मिसरे पर ज़बरदस्त ग़ज़ल पेश
की है आपने...
मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है के लासानी नहीं जाती.
वाह..वाह..वाह. जज़्बात की इस गहराई को सलाम.
यूँ पूरी ग़ज़ल ही बेहद जानदार है. दाद कबूल करें.
लोकेश आनंद
आपके अंदाज़े-बयाँ का जवाब नहीं दिनेश जी.
ReplyDeleteफैज़ साहब के मिसरे पर ज़बरदस्त ग़ज़ल पेश
की है आपने...
मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है के लासानी नहीं जाती.
वाह..वाह..वाह. जज़्बात की इस गहराई को सलाम.
यूँ पूरी ग़ज़ल ही बेहद जानदार है. दाद कबूल करें.
लोकेश आनंद
बहुत उम्दा ग़ज़ल है दिनेश ठाकुर जी.
ReplyDeleteएक-एक शे'र दिल छूने वाला है.
इस लाजवाब पेशकश के लिए
तहे-दिल से शुक्रिया.
..हबीब मोहम्मद
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
ReplyDeleteफ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
कुछ नहीं कह पाऊंगा ....
बस.....
वाह !!
भाई दिनेश ठाकुर जी!
ReplyDeleteमैं आपके ब्लॉग को काफी पहले से फौलो कर रहा हूं . लेकिन आज पहली बार फैज़ की ज़मीन पर आपकी ग़ज़ल पढ़ी. इसका हर शेर मुतआसिर कर रहा है लेकिन खास तौर पर यह शेर बहुत पसंद आया-
न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.
बधाई!
-देवेन्द्र गौतम