Tuesday, May 18, 2010

नई ग़ज़ल

मेरी एक नई ग़ज़ल
दोस्तों,
उर्दू वर्ल्ड वेबसाइट पर हाल ही तरही ग़ज़ल मुक़ाबला शुरू किया गया है. इसमें जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मिसरे 'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती' पर कई शायरों ने अपनी-अपनी ग़ज़ल पेश की है. मैंने भी इस बहर पर वहाँ ग़ज़ल पोस्ट की है. आपके लिए वह ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ. यह बहर-ए-हज़ज सालिम (मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन) है. ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए.
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अजब उलझन भरे दिन हैं वजह जानी नहीं जाती
हमारी बेकरारी उनकी हैरानी नहीं जाती.

कभी तारीक गोशों से सुनी थी इक सदा हमने
हुई मुद्दत मगर दिल से परेशानी नहीं जाती.

भरी बस्ती में भी हालत ख़राबे से नहीं कमतर
हमारे घर से आख़िर क्यों ये वीरानी नहीं जाती.

ख़सारा ही ख़सारा अपने हिस्से में चला आया
कभी तक़दीर के क़ातिब की मनमानी नहीं जाती.

अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं रहता
यहाँ तन्हाइयों के रुख़ से ताबानी नहीं जाती.

लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती.

पनाहें माँगने वाले मुसलसल बढ़ गए, लेकिन
महल के बंद दरवाज़ों से अरज़ानी नहीं जाती.

न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.

हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.

मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.

हमारे आज से बेहतर नई नस्लों का कल होगा
भले नासाज़ हों हालात, इम्कानी नहीं जाती.

उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.


मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है कि लासानी नहीं जाती.

कभी है मीर का पहलू कभी ग़ालिब महकते हैं
ज़ियादा दूर ग़ज़लों से निगेहबानी नहीं जाती.

-दिनेश ठाकुर