जनाब मखमूर सईदी को दुनिया से रुखसत हुए एक हफ्ता होने को आया, लेकिन अभी तक लगता है कि वह अपने शेर पढ़ते हुए हमारे आसपास ही हैं. जैसा साहिर साहब ने कहा था..
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से एलान नहीं मिट जाते.
वाकई दुनिया में खास काम करने वाले मिट्टी से मिलकर और शदीद हो जाते हैं. मखमूर साहब के इंतकाल पर पिछली बार हमने मुख़्तसर-सा तब्सरा किया था. कुछ दोस्तों की गुज़ारिश पर आज मखमूर साहब की चार ग़ज़लें पेश की जा रही है. मुलाहिजा फ़रमाएँ.
कितनी दीवारें उठी हैं
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ.
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दरमियाँ.
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ.
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ.
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
(साअत=पल)
तुम चुप रहे हम चुप रहे
जब हुक्म इक सादिर हुआ, तुम चुप रहे हम चुप रहे
वो वक़्त कुछ कहने का था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
अब अपनी-अपनी किस्मतों पर बैठ कर सोचा करें
वो फ़ैसला लिखता रहा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
तक़रीर उसकी आग थी, शोले फ़िज़ा में भर गई
और शहर सारा जल गया, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
लुटने लगी थीं बस्तियाँ, सोये हुए थे पासबाँ
चारों तरफ़ इक शोर था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
सर फोडती पागल हवा कहती थी कोई माज़रा
रोती रही घायल फ़िज़ा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
मंज़र भरे बाज़ार का, गिरना दरो-दीवार का
घर-घर क़यामत थी बपा,तुम चुप रहे हम चुप रहे.
(सादिर=जारी, पासबाँ=द्वारपाल, बपा=उपस्थित)
क्या हुआ देखो
रंग पेड़ों का क्या हुआ देखो
कोई पत्ता नहीं हरा देखो.
ढूँढना अक्से-गुमशुदा मेरा
अब कभी तुम जो आईना देखो.
क्या अजब बोल ही पड़ें पत्थर
अपना क़िस्सा उसे सुना देखो.
दोस्ती उसकी निभ नहीं सकती
दिल न माने तो आज़मा देखो.
अजनबी हो गए शनाशा लोग
वक़्त दिखलाए और क्या देखो.
ज़िन्दगी को शिकस्त दी गोया
मरने वाले का हौसला देखो.
ख़ुदगरज़ हैं ये बस्तियाँ 'मखमूर'
तुम भी अपना बुरा-भला देखो.
सबको डर है यहाँ
न रस्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सबकी क़िस्मत सफ़र है यहाँ.
ज़बाँ पर जिसे कोई लाता नहीं
उसी लफ़्ज़ का सबको डर है यहाँ.
जीए जाएँगे झूठी ख़बरों प' लोग
यही एक सच्ची ख़बर है यहाँ.
हवाओं की उँगली पकड़कर चलो
वसीला यही मोतबर है यहाँ.
न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो, इक हमारा भी घर है यहाँ.
पलक भी झपकते हो 'मखमूर' क्यूँ
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ.
(वसीला=माध्यम, मोतबर=भरोसेमंद, शहरे-बेहिस=संवेदनशून्य नगर)
Saturday, March 6, 2010
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हर शेर को बार बार पढ़ा ओर झूमता रहा
ReplyDeleteतीसरी गजल बहुत पहले भी पढ़ चुका हूँ अभी तक दिल में बसी हुई है
पहली गजल के तो कहने क्या, बस जी पढ़ कर दिल खुश हो गया
सुभान अल्लाह...सभी ग़ज़लों का हर इक शेर मोतियों में तोलने लायक है...शुक्रिया आपका इन्हें पढवाने के लिए...अभी हाल ही में वाग्देवी प्रकाशन के यहाँ से उनकी एक शायरी की किताब मैंने मंगवाई थी जिसे आई तब से न जाने कितनी बार पढ़ चुका हूँ और जल्द ही उसके बारे में अपने ब्लॉग पर लिखने वाला हूँ...ऐसी शक्शियत के बारे में जितना लिखा जाये कम है...
ReplyDeleteनीरज
CHARON GHAZLEN EK SE BADHKAR EK HAIN. AAP MAKHMOOR SAHAB KI KUCHH AUR GHAZLEN PESH KAREN, TO BADI MEHRBANI HOGI. MAKHMOOR SAHAB KE DEEVAN KAHAN MIL SAKTE HAIN?
ReplyDelete-TASNEEM AKHTAR
Dinesh ji,
ReplyDeletesadar namskaar,
chaaron ki gazlen bahut khoobsurat bahut pur asar hai
kuch kami kabhi puri nahi hoti
inki kitaab abhi tak nahi padhi magar is baar bharat jaane par zarur lekar padhungi
Dineshji,
ReplyDeleteMakhmoor sahab ki sabhi ghazalon ne dil chhu liya. inhen padhane ke liye aapka hardik aabhar. aap isi tarah ki samgri dete rahenge, to aapka blog jyada se jyada logon ko pasand aayega.meri shubhkamnayen.
antima kinger
Dineshji,
ReplyDeleteMAKHMOOR SAHAB KI IN LAJWAB GHAZALEN PADHVANE KE LIYE AAPKA SHUKRIYA. UNKE INTKAL SE URDU SAHITYA KO HI NAHIN, US PURI DUNIYA KA KABHI NA BHARA JANE WALA NUKSAN HUA HAI, JO INSANIYAT KO SABSE BADA DHARM MANTI HAI AUR SALIKE SE LIKHNE WALON KO UPAR WALE KI NEMAT.KHUDA MAKHMOOR SAHAB KO JANNAT MEIN JAGAH DE, YAHI DUA HAI.
-YASH MITTAL
बहुत दिनों बाद आज नेट पर बैठना हुआ और आपके ब्लॉग पर मखमूर सईदी साहब पर सामग्री पढ़कर दिल भर आया. उनकी शायरी तो असरदार है ही, आपकी टिप्पणी भी लाजवाब रही.उम्मीद है भविष्य में भी आप इसी तरह की पठनीय सामग्री देते रहेंगे. फ़िलहाल तो आपने मखमूर साहब को और पढने की तलब बढ़ा दी है.उनकी किताबें बाजार में तलाश करनी पड़ेंगी.
ReplyDeleteसादर...
तृप्ति भटनागर
मख़मूर साहब के बारे में कुछ कहना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है ,चारों ग़ज़लें एक से बढ़कर एक हैं
ReplyDeleteजब हुक्म इक सादिर हुआ, तुम चुप रहे हम चुप रहे
वो वक़्त कुछ कहने का था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
अब अपनी-अपनी किस्मतों पर बैठ कर सोचा करें
वो फ़ैसला लिखता रहा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
तक़रीर उसकी आग थी, शोले फ़िज़ा में भर गई
और शहर सारा जल गया, तुम चुप रहे हम चुप रहे
अल्फ़ाज़ नहीं इन की तारीफ़ के लिए,कमाल के अश’आर
मंज़र भरे बाज़ार का, गिरना दरो-दीवार का
घर-घर क़यामत थी बपा,तुम चुप रहे हम चुप रहे.
कितनी आसानी से इतनी बड़ी बात कह देते हैं मख़मूर साहब
मैं जो कहने आया था वो इस्मत ज़ैदी जी ने सही कर रखा है, बेहद शाइस्तगी से, मगर दूसरों को न खटके इसलिए आप "तुम चुप रहे - हम चुप रहे" के तीसरे शे'र में 'और शहर सारा' कर दें, सारा जोड़ कर - शायद टाइप करते वक़्त रह गया है।
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति बहुत अच्छी है, ग़ज़लें तो अच्छी थीं ही, आपका सेलेक्शन आपकी अदबी समझ भी दिखाता है।
शुक्रिया!
Dinesh ji ko padna aur padte rahna hai. Har sher mein ek naginedari, shipl aur shilpakari se kheenchi tasveer ankhon ke saamne raks karti hai..bahut khoob!!!
ReplyDeleteदीवारें उठ गयी हैं जो घर घर के दरमियाँ
तन्हाइयों में जैसे बसर कर रहे हैं हम
अब अपनी-अपनी किस्मतों पर बैठ कर सोचा करें
ReplyDeleteवो फ़ैसला लिखता रहा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
Sher bahut hi kuch kah raha. mera Maun to bas daad de raha hai